कविता -कांटे

मेरी जिन्दगी मे कांटे है ,
कांतेही रहेंगे .
मै फुलोसे खेलना चाहता हू ,
लेकिन वो चुभेगे .
आये है कितने मोसम ,
जायेंगे कितने मोसम ,
दुख के आग मै जलते रहेंगे .
मै कलभी दीवाना था ,
आज भी  दीवाना हु .
पागलो की तरह फिरता रहू .
        १
मैंने देखे थे वो सपने ,
जोआज जख्म बन गए .
सोचा था अपने कभी होंगे ,
लेकिन वो पराये हो गए .
मै तो चल्ताही रहा ,
सामने मौत थी ,दूर देखा तो जिंदगी थी .
वक्त का पहिया एसे चलता रहा ,
कुछ समज नहीं पाया ,
कांटोसे लड़ता रहा .
         २
अब तो एसे दर्द आता है ,
दिलको चीरकर निकल जाता है .
दिल तो सब  सह लेता है ,
लेकिन मै जान हु ,
मै नहीं सह सकता .गम के बाद्लोमे ,
दुःख की बारिश की ,
उसपर सूरज ने आग बरसाई.
पानी और आग मै जल रही ये ,
कांटो भरी जिन्दगी .
          ३ 
जब तक साँस है तब तक ,
लड़ता रहूंगा ,दर्द मै सुख देखूंगा .
उसे तो सब पता है फिरभी ,
लड़ने के लिए उसने ज़िंदा रखा है .
कभी ना कभी तो आएगी बहार ,
कभी ना तो कांटे भी बनेगे फुल .
इन्तजार है मुझे उस पल का ,
जो कांटो को फुलोमे तब्दील करे .

कवी -उद्धव परभानीकर
फोन -९७६६३७७६९९

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